पैडमैन: महिलाएं देखे ना देखे मगर पुरुषों को जरुर देखनी चाहिए


पैडमैनमहिलाएं देखे ना देखे मगर पुरुषों को जरुर देखनी चाहिए

अक्षय कुमार की शायद ये पहली फिल्म होगी जिसको देखने के लिए मेरे मन में कोई खासा उत्साह नहीं था, मगर रात में अचानक एक दोस्त का फोन आया कि कल फिल्म देखने चलते हैं मैं उसे मना नहीं कर सकती थी तो मैंने ना जाने क्यों बड़े अनमने मन से फिल्म देखने के लिए हामी भर दी, (यहां बता दूं कि मेरी कई फेविरेट फिल्मों में अक्षय की एयरलिफ्ट, बेबी, रुस्तम और हॉलीडे शामिल है) दरअसल मुझे लगा था कि ये फिल्म एक सोशल मैसेज पर बनी अक्षय कुमार की पिछली फिल्म टॉयलेट- एक प्रेम कथा की तरह एक सरकारी विज्ञापन होगी मगर शुक्रिया आर बाल्की, स्वानंद किरकिरे और ट्विंकल खन्ना आपने मुझे निराश नहीं किया। फिल्म एक सोशल मैसेज पर बनी बेहतरीन फिल्म है लेकिन इसको समझने के लिए आपका सेंसिटिव होना जरूरी है। ये फिल्म बताती है कि महिलाएं कितना कुछ सहती है और उफ्फ तक नहीं करती हैं। फिल्म के एक डॉयलॉग में अक्षय कुमार अपनी टूटी- फूटी अंग्रेजी में कहते भी दिखते हैं कि अगर औरतों को जो तकलीफ सहनी पड़ती है अगर पुरुषों को सहनी पड़े तो आधे घंटे में वो मर जाए ।

जैसा की आप जानते हैं कि आर बाल्की हमेशा ही एक अच्छे वन-लाइनर विचार पर फिल्में बनाते आए हैं मगर पिछली फिल्मों में शमिताभऔर की एंड कामें जो ढील दी वो इस फिल्म में कसकर रखी है। ज्यादातर उनकी फिल्म आखिरी तक आते- आते अपने विचार को खो देती थी मगर पैडमैन अंत में ही मजबूत और सार्थक साबित होती है। फिल्म की कहानी की बात की जाए तो फिल्म में मेंस्ट्रुअल हाइजीन के प्रति लोगों को जागरूक करने की दमदार पहल की गई है साथ ही संदेश देने की कोशिश की गई है कि इस मुद्दे पर चाहे महिला हो या पुरुष सभी को खुलकर बात करनी चाहिए।
लक्ष्‍मीकांत चौहान (अक्षय कुमार) एक वेल्‍ड‍िंग वर्कशॉप में जरुर काम करता है मगर उसके हौसले बुलंद है, वो अपनी अर्धागंनी को अपने जीवन का अंग मानता है, शादी के समय दिए गए वचनों को वो सिर्फ शब्द की श्रेणी में नहीं रखता है , वो पत्नी की हर परेशानी को दूर करने की कोशिश करता है चाहे प्याज काटने के समय आंसू आना हो या फिर साइकिल के पीछे कैरियर पर बैठना हो वो पत्नी की सहूलियत के लिए हर मुमकिन कोशिश करता है। वो उसकी सेहत को लेकर भी सजग है, पीरियड्स के दिनों में वो कपड़ा इस्‍तेमाल करती है और सैनिटरी पैड महंगा होने के कारण वो गंदा कपड़ा इस्तेमाल करने के लिए मजबूर भी है मगर लक्ष्‍मीकांत को उन पांच दिनों में गायत्री (पत्नी) की स्‍वच्‍छता की चिंता है। उसकी चिंता समाज की दूसरी औरतों के लिए भी है चाहे उसकी बहनें ही क्यों ना हों। जिसके लिए वो शर्मदगी भी सहता है और उसे घर तक छोड़ना पड़ता है। क्योंकि अब सस्‍ता पैड बनाना उसकी जिद बन जाती है लेकिन इन सबके बीच सबसे बड़ी समस्या इस बात की थी कि कोई भी महिला इस पर बात करने को तैयार नहीं थी, माहवारी को लेकर दकि‍यानूसी सोच भी बडी समस्या है। जिसको पार करते हुए वो आखिर में एक सस्ती सैनिटरी पैड बनाने वाली मशीन बनाने में सफल हो जाता है और गांव की असहाय और गरीब महिलाओं को ही काम देकर उन्हें स्वावलंबी और स्वस्थ बनाता है।

फिल्म का सबसे दमदार सीन है अक्षय कुमार का यूएन में शानदार सात-आठ मिनट लंबा मोनोलॉग । जो आपको एक पॉजिटिविटी और जोश से भर देगा वहीं अक्षय कुमार की एक्टिंग साबित कर देती है कि ऐसे विषय पर बनी फिल्म में उनसे बेहतर कोई अभिनय नहीं सकता वहीं राधिका आप्टे ने भी बहुत शानदार एक्टिंग की है जबकि सोनम कपूर कुछ ज्यादा कमाल नहीं कर पाई हैं । फिल्म में कई बेहतरीन डायलॉग है जो महिलाओं के सम्मान की बात को मजबूत ढंग से रखते हैं जैसे अक्षय कुमार कहते हैं कि औरतों की शर्म से बड़ी कोई बीमारी नहीं है। शर्म को सम्मान में बदलने के लिए जो करना होगा करुंगा, साथ ही अगर आपको अच्छा बाप बनना है तो पहले अच्छी मां बनना होगा ऐसे कई डायलॉग है।

अरुणाचलम मुरुगनाथम के जीवन पर बनी फिल्म इस सच्चाई से भी रुबरू कराती है कि भारत में 12-18 फीसदी महिलाएं ही सैनिटरी पैड का इस्‍तेमाल करती हैं। ये एक डराने वाला सच है, जबकि अब तक सस्ते सैनिटरी पैड गांव- गांव तक मुहैया कराने के लिए कोई पहल नहीं की गई है। सरकार ने तो इतने अभियान चलाने के बाद भी इसे टैक्स फ्री भी करना जरुरी नहीं समझा। सस्‍ता सैनिटरी पैड महिलों की जरूरत है फिर भी महिलाओं को इसके लिए हिचकना और तरसना पड़ता है।
शुरुआत में फिल्म धीमी और बोरिंग लगती है मगर धीरे- धीरे अपना पेस पकड़ती है । फिल्म की वास्तविक कहानी तमिलनाडु के कोयम्बटूर की है मगर इसे मध्य प्रदेश के महेश्वर का दिखाया गया है इस परिवर्तन को ऐसे भी समझ सकते हैं कि लेखक स्वानंद किरकिरे इंदौर के ही रहने वाले हैं। लेकिन ये बदलाव फिल्म देखने के दौरान बिल्कुल अटपटा नहीं लगता है।
अक्षय कुमार का ये एक साहसिक कदम माना जा सकता है कि ऐसे विषय पर अभिनय करने का जोखिम उन्होंने उठाया, कई ऐसे सीन्स दिए जो साधारण लगते हैं मगर बेहद ही मुश्किल हैं एक पुरुष के तौर पर। जैसे सैनिटरी पैड पहनने तक पर वो नहीं हिचके।


फिल्म पुरुष प्रधान समाज में महिला के सम्मान के साथ- साथ उसकी शक्ति को बखूबी समझाती है। फिल्म के अंत के हिस्से को देखकर लगता है कि पुरुष के लिए महिला से लगाव किसी रिश्ते की सीमा से बंधा नहीं होता क्षणिक हीं सही मगर पत्नी के होते हुए भी पुरुष के मन में दूसरी महिला के लिए भाव आसानी से पनप जाता है। इसलिए मैं कहती हूं कि इस फिल्म को महिलाएं देखे ना देखे मगर एक पुरुष को ये फिल्म जरुर देखनी चाहिए ।




















Comments

Popular posts from this blog