गीतों का राजकुमार – शैलेंद्र
अपनी धुन
के पक्के और शब्दों के जादूगर गीतकार और कवि शैलेंद्र का आज जन्मदिन है.. उनके
सम्मान में मथुरा की एक सड़क का नाम उनके नाम पर ही रखे जाने की आज घोषणा की गई
है...क्योंकि उन्होंने अपने बचपन से जवानी तक 16 बरस मथुरा की गलियों में ही बिताए
थे..शैलेंद्र का फिल्मी जगत में योगदान अविस्मरणीय है...उनके गीतों की खनक आज भी
लोगों के जहन में यूं ही बनी हुई है..शैलेंद्र के गीत ऐसे निच्छल थे, जिसमें कोई बनावट
नहीं थी, हर सुनने वाले को लगता था कि ये तो मेरा ही दर्द और मेरी ही कहानी है...‘’सब कुछ सीखा हमने ना सीखी
होशियारी’’ जैसे गीत के माध्यम से शैलेंद्र ने एक बड़ी बात
को भी बहुत आसानी से कह दिया था...और सच ही है अगर होशियारी सिख ली होती तो कैसे
हिंदी सिनेमा जगत को एक ऐसा सच्चा गीतकार मिलता, जिसके गीत रुह को छू जाते..झूठ और
फरेब से शैलेंद्र को नफरत थी, सच पर मर मिटने की जिद थी, चाहे तो उन्हें अनाड़ी कह
लो ये उन्हें स्वीकार था मगर अपने आदर्शों और सच से समझौता नहीं।
शैलेंद्र
के पिता बिहार के रहने वाले थे, फौजी थे। शैलेंद्र का जन्म रावलपिंड़ी में हुआ,पिता
के रिटायर होने पर मथुरा में रहे, वहीं शिक्षा हुई, घर में भी उर्दू और फ़ारसी का रिवाज था लेकिन शैलेन्द्र
की रुचि घर से कुछ अलग ही थी, 1942 में मुंबबई रेलवे में इंजीनियरिंग सीखने गए, अगस्त
आंदोलन में जेल भी गए लेकिन कविता का शौक़ बना रहा...कुछ दिन मथुरा रहकर शैलेन्द्र
का तबादला माटुंगा हो गया, शैलेंद्र माटुंगा में रेलवे वर्कशाप में वेल्डर बनने की
कोशिश कर रहे थे मगर वो लोहा तो कभी ठीक से नहीं जोड़ पाए मगर उन्होंने शब्दों को
ऐसे जोड़ा कि संगीत की दुनिया उनके हर एक शब्द पर वाह- वाह कर उठी।
बात अगर
शैलेंद्र की हो तो राजकपूर का जिक्र आना को लाजमी है...दो महान कलाकारों की दोस्ती
ही कुछ ऐसी ही थी ..साथ ही ये बात कम लोगों को ही मालूम होगी कि शैलेंद्र नाम भी
राजकपूर का ही दिया हुआ है..एक बड़ा संयोग ये भी है कि गीतकार शैलेंद्र की पुण्यतिथि और राजकपूर का जन्मदिन एक ही
दिन होता है ...कहानी यहां से शुरू होती है ...अगस्त 1947 में राज कपूर एक कवि सम्मेलन में शैलेन्द्र को
कविता पढ़ते देखकर खासा प्रभावित हुए और फ़िल्म 'आग' में लिखने के लिए कहा लेकिन शैलेन्द्र ने ये कह कर मना कर दिया वो अपनी
कविताओं का कारोबार नहीं करते , राज कपूर को शैलेन्द्र का ये अन्दाज लुभा गया.
उन्होंने शैलेन्द्र को कहा- अच्छी बात है, कभी इच्छा हो तो
मेरे पास आइएगा. शादी के बाद कम आमदनी से घर चलाना मुश्किल था इसलिए शैलेंद्र राज
कपूर के पास गए, उन दिनों राजकपूर बरसात फिल्म की तैयारी में जुटे थे, तय वक्त पर
शैलेन्द्र राजकपूर से मिलने घर से निकले तो घनघोर बारिश होने लगी। कदम बढ़ाते और
भीगते शैलेन्द्र के होंठों पर ‘बरसात में तुम से मिले हम सनम’
गीत ने खुद-ब-खुद जन्म ले लिया...अपने दस गीत सौंपने से पहले
शैलेन्द्र ने इस नए गीत को राजकपूर को सुनाया...राजकपूर ने शैलेंद्र को सीने से
लगा लिया, दसों गीतों का पचास हज़ार रुपये मेहनताना उन्होंने शैलेन्द्र को दिया।
नया गीत बरसात का टाइटल गीत बना , गाना हिट हुऐ फिर क्या था, उसके बाद शैलेन्द्र संगीत के ऐसे नक्षत्र हो चुके थे, कि वो फिर ना झुके
और ना मुड़े।
सीधे, सच्चे और साधारण
शब्दों में संवेदनाओं को उकेर कर रख देना ही शैलेंद्र की खासियत थी ..'किसी के आँसुओं में मुस्कुराने' जैसी सोच सिर्फ शैलेंद्र जैसे गीतकार ही सोच सकते थे
शैलेंद्र ने अपने जीवनकाल में
एक ही फिल्म का निर्माण किया जिसका नाम है तीसरी कसम जिसमें अभिनय राजकपूर ने किया
था. “तीसरी कसम” बनाने
के दौरान ही शैलेंद्र ऐसे भंवर में फंसे कि खुद को निकाल नहीं पाए...शैलेंद्र इस फिल्म की कहानी से बहुत छेड़छाड़ नहीं करना चाहते थे मगर बाजार
की जरूरतें दूसरी थी, इस बात को राजकूपर समझते थे...फिल्म
बनी तो बहुत ही क्लासिकल पर वह वैसा कारोबार नहीं कर सकी जैसा कि शैलेंद्र चाहते
थे खुद की सारी दौलत और दोस्तों से
ऊधार ली भारी रकम फिल्म पर लगाते चले गए... फिल्म डूब गई...कर्ज़ से लदे शैलेन्द्र
बीमार हो गए...ये 1966 की बात है...तब
वो ‘जाने कहां गए वो दिन, कहते थे तेरी
याद में, नजरों को हम बिछायेंगे’ गीत
की रचना में लगे थे... शैलेंद्र बीमारी में भी राजकपूर से मिलने गए और रास्ते में
उन्होंने दम तोड़ दिया। यह दिन 14 दिसंबर 1966 का
था।जिस दिन राजकपूर का जन्मदिन भी होता है...शैलेन्द्र को नहीं मालूम था कि मौत के
बाद उनकी फिल्म हिट होगी और उसे इतना सम्मान मिलेगा .. शैलेंद्र एक ऐसा कोहिनूर थे जिसकी चमक
दुनिया को उनके चले जाने के बाद नजर आई .. शैलेंद्र के लिए शायद ये ही कहा जा सकता
है कि वे साधारण शब्दों के असाधारण गीतकार थे..जो विरले ही इस धरती पर मिलते हैं।


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