क्या हम वाकई स्वतंत्र है ?
स्वतंत्रता दिवस के मौके पर अगर सही मायने में हम इसे समझे तो आज भी कई सवाल खड़े होते हैं...इस बात को समझने के लिए कहीं दूर जाने की जरुरत नहीं अपने आस-पास ही नजर दौड़ा कर देखे तो बहुत कुछ स्पष्ट हो जाएगा उदाहरण के तौर पर हमारी सोच-समझ को ही ले लिजिए, गुलामी की छाप आज भी लोगों में आसानी से दिख जाती है ज्यादातर लोग भेड़चाल के शिकार है और इन हालात के बीच अगर किसी ने अलग सोच भी लिया तो व्यक्ति पूजन के बिना सब बेकार है...वहीं भाषा की गुलामी की बात करे अंग्रेजी भाषा लोगों के मस्तिष्क में इस तरह घर कर गई है कि जो अंग्रेजी बोलता है वो सर्वज्ञानी है..जबकि इस बात पर किसी को शर्मिदगी तक नहीं है कि लोग हिंदुस्तान में रहकर भी हिंदी ना सही से बोल पा रहे है, ना लिख पा रहे हैं...खासकर आज की पीढ़ी, तो क्या अपनी भाषा से दूरियां बनाना गर्व की बात है या एक बड़ी शर्म ..चलिए अब इससे दो कदम आगे चलते हैं बात करते हैं राजनैतिक स्वतंत्रता की, जिसमें स्वतंत्रता का अर्थ होता है राज्य की नजर में राज्य के सभी नागरिक एक समान हो, उनका समान विकास हो..मगर आज जो पूंजीपति है वो मस्त है, निडर है तो दूसरा एक कीड़े-मकोड़ों सा जीवन व्यतीत करने के लिए विवश है और रही बात न्याय व्यवस्था की तो एक केस लड़ने में आम आदमी के पसीने छूट जाते हैं तारीख पर तारीख देखते देखते, वहीं आजकल की सरकारों को जंजीरों में जकड़ने का एक नया शौक पैदा हो गया है, ये बैन, वो बैन (नेट न्यूट्रलिटी, वेबसाइट, सोशल मीडिया, मैगी) का सिलसिला शुरू हो गया है ..देखना है कि आगे क्या-क्या बैन होता है ? अब बात करते हैं संविधान की , जिसमें भेदभाव के बीज पहले ही बो दिए गए जैसे पिछड़ा वर्ग , अल्पसंख्यक समुदाय बगैरा-बगैरा इन सबके बीच अगर सामाजिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता की बात कि जाए तो एक अंग्रेज़ अधिकारी ने भारतीय समाज के बारे में लिखा था कि भारत में सुरक्षा और सम्मान की दृष्टि से नारियों का स्थान दुनिया के किसी भी समाज से अच्छा है मगर आज के हालात में इस देश में महिलाओं पर अत्याचार, बलात्कार आम हो चला है, बात अगर धर्म की कि जाए तो ये तो मखौल ही बन चुका है जिसका नतीजा है राधे मां, आसाराम, सारथी बाबा और ना जाने कितने और बाबा , धर्म के नाम पर कभी इतने दंगे नहीं हुए कभी इतना भेदभाव नहीं हुआ जो आज हो रहा है और अगर बात आर्थिक स्वतंत्रता कि जाए तो ना तो हमारा देश आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं और ना ही यहां के लोग, बाजार भी निम्न और उच्च वर्ग में बंटा हुआ है...इन सब उदाहरणों के बीच क्या आज हम ये कह सकते हैं कि हम वाकई स्वतंत्र हैं ?
स्वतंत्रता दिवस के मौके पर अगर सही मायने में हम इसे समझे तो आज भी कई सवाल खड़े होते हैं...इस बात को समझने के लिए कहीं दूर जाने की जरुरत नहीं अपने आस-पास ही नजर दौड़ा कर देखे तो बहुत कुछ स्पष्ट हो जाएगा उदाहरण के तौर पर हमारी सोच-समझ को ही ले लिजिए, गुलामी की छाप आज भी लोगों में आसानी से दिख जाती है ज्यादातर लोग भेड़चाल के शिकार है और इन हालात के बीच अगर किसी ने अलग सोच भी लिया तो व्यक्ति पूजन के बिना सब बेकार है...वहीं भाषा की गुलामी की बात करे अंग्रेजी भाषा लोगों के मस्तिष्क में इस तरह घर कर गई है कि जो अंग्रेजी बोलता है वो सर्वज्ञानी है..जबकि इस बात पर किसी को शर्मिदगी तक नहीं है कि लोग हिंदुस्तान में रहकर भी हिंदी ना सही से बोल पा रहे है, ना लिख पा रहे हैं...खासकर आज की पीढ़ी, तो क्या अपनी भाषा से दूरियां बनाना गर्व की बात है या एक बड़ी शर्म ..चलिए अब इससे दो कदम आगे चलते हैं बात करते हैं राजनैतिक स्वतंत्रता की, जिसमें स्वतंत्रता का अर्थ होता है राज्य की नजर में राज्य के सभी नागरिक एक समान हो, उनका समान विकास हो..मगर आज जो पूंजीपति है वो मस्त है, निडर है तो दूसरा एक कीड़े-मकोड़ों सा जीवन व्यतीत करने के लिए विवश है और रही बात न्याय व्यवस्था की तो एक केस लड़ने में आम आदमी के पसीने छूट जाते हैं तारीख पर तारीख देखते देखते, वहीं आजकल की सरकारों को जंजीरों में जकड़ने का एक नया शौक पैदा हो गया है, ये बैन, वो बैन (नेट न्यूट्रलिटी, वेबसाइट, सोशल मीडिया, मैगी) का सिलसिला शुरू हो गया है ..देखना है कि आगे क्या-क्या बैन होता है ? अब बात करते हैं संविधान की , जिसमें भेदभाव के बीज पहले ही बो दिए गए जैसे पिछड़ा वर्ग , अल्पसंख्यक समुदाय बगैरा-बगैरा इन सबके बीच अगर सामाजिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता की बात कि जाए तो एक अंग्रेज़ अधिकारी ने भारतीय समाज के बारे में लिखा था कि भारत में सुरक्षा और सम्मान की दृष्टि से नारियों का स्थान दुनिया के किसी भी समाज से अच्छा है मगर आज के हालात में इस देश में महिलाओं पर अत्याचार, बलात्कार आम हो चला है, बात अगर धर्म की कि जाए तो ये तो मखौल ही बन चुका है जिसका नतीजा है राधे मां, आसाराम, सारथी बाबा और ना जाने कितने और बाबा , धर्म के नाम पर कभी इतने दंगे नहीं हुए कभी इतना भेदभाव नहीं हुआ जो आज हो रहा है और अगर बात आर्थिक स्वतंत्रता कि जाए तो ना तो हमारा देश आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं और ना ही यहां के लोग, बाजार भी निम्न और उच्च वर्ग में बंटा हुआ है...इन सब उदाहरणों के बीच क्या आज हम ये कह सकते हैं कि हम वाकई स्वतंत्र हैं ?
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